प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून औपचारिक लिखित संधियों या समझौतों के बजाय स्थापित राज्य प्रथाओं से उत्पन्न होने वाले अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों को संदर्भित करता है। यह अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्राथमिक स्रोतों में से एक है और सभी राज्यों पर बाध्यकारी है, भले ही उन्होंने किसी संधि पर हस्ताक्षर किए हों या नहीं, बशर्ते कि उन्होंने लगातार उस प्रथा पर आपत्ति न जताई हो। यहाँ एक विस्तृत व्याख्या दी गई है: 1. परिभाषा: प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून में ऐसे नियम और मानदंड शामिल हैं जो समय के साथ राज्यों के सुसंगत और सामान्य अभ्यास से विकसित हुए हैं, जिनका पालन वे कानूनी दायित्व (ओपिनियो ज्यूरिस के रूप में जाना जाता है) की भावना से करते हैं। 2. आवश्यक तत्व: राज्य अभ्यास (यूसुस): समय के साथ राज्यों द्वारा व्यापक, एकरूप और सुसंगत आचरण होना चाहिए। इसमें सरकारों द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयाँ, कानून, न्यायालय के निर्णय और राजनयिक संचार शामिल हैं। ओपिनियो ज्यूरिस: राज्यों को अभ्यास का पालन करना चाहिए क्योंकि उनका मानना है कि यह कानूनी रूप से अनिवार्य है, न कि केवल शिष्टाचार, आदत या राजनीतिक सुविधा के कारण। 3. प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून के उदाहरण: नरसंहार, यातना और गुलामी का निषेध राजनयिक प्रतिरक्षा के नियम गैर-वापसी का सिद्धांत (शरणार्थियों को उस देश में वापस न भेजना जहां उन्हें नुकसान का सामना करना पड़ता है) समुद्र का कानून (UNCLOS जैसी संधियों में संहिताकरण से पहले) 4. महत्व: प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जहां कोई विशिष्ट संधि मौजूद नहीं है। यह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अंतराल को भरता है और यह सुनिश्चित करता है कि गैर-हस्ताक्षरकर्ता राज्य भी कुछ सार्वभौमिक मानकों से बंधे हों। 5. भारत में अनुप्रयोग: भारतीय न्यायालयों ने विभिन्न निर्णयों में प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून की भूमिका को मान्यता दी है। जब तक यह भारतीय घरेलू कानून के साथ संघर्ष नहीं करता है, तब तक प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून भारतीय न्यायालयों में लागू किया जा सकता है। 6. सीमाएँ: किसी प्रथा और ओपिनियो ज्यूरिस के अस्तित्व को साबित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। एक राज्य जो लगातार किसी विशेष प्रथा पर आपत्ति करता है, वह उससे बाध्य नहीं हो सकता है (इसे "लगातार आपत्तिकर्ता" नियम कहा जाता है)। निष्कर्ष: प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून राज्यों के सुसंगत और सामान्य अभ्यास से बनता है, जिसे इस विश्वास के साथ लागू किया जाता है कि ऐसा अभ्यास कानूनी रूप से आवश्यक है। यह अंतर्राष्ट्रीय कानून का एक महत्वपूर्ण स्रोत है और लिखित समझौतों की अनुपस्थिति में भी वैश्विक मानदंडों और मानकों को बनाए रखने में मदद करता है।
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